कहानी एक तलवार की
तलवार वो बड़ी अभिमानी थी
रक्त की वो दिवानी थी
झुकते उसके सामने हर शस्त्र
था कभी वो खेलती रक्त की होली
कभी वो मनाती जीत का जश्न
राजसी तलवार वो बड़ी अभिमानी थी!!!!
उसके सूर्य से पहले प्रणाम करते थे
सुरमा उसकी आरती उसकी संध्या को होती थी
रक्त से नहाती वो रक्त का खेल खेला करती थी
जहां भी जाती अपने सखा वीर का साथ ना छोड़ती थी
वो हर दम हर कदम पत्नी सा साथ देती थी
वो तलवार बड़ी अभिमानी थी !!!
रूकते पांव वीरों के उसमें जोश भर देती थी
कभी स्वयं जाती वीरों के पास कभी वीर उसे बुलाते थे
रक्त से भी गहरा संबंध था उसका
हर वक्त हर कदम साथ निभाती थी
वो तलवार बड़ी अभिमानी थी वो!!!
अब लग गया हैं जंग उस पर
कभी प्रताप कभी दुर्गा दास की सखी थी
वो आज बंद पड़ी हैं कहीं किसी कोने में
ऊंची पताका फहराती वो राजपूतों की
आज वो गुमसुम चुपचाप बैठी हैं शीशे के घरोंदो में
उठेंगी वो एक दिन झंकार होगी
बड़ी चूमेगी फिर रक्त को
साथ निभाएंगी वो बाल सखा सा शूरवीरों सा उठेंगी वो एक दिन............................... तलवार बड़ी अभिमानी थी